कितनी शुभ्र थी मैं
आज नहीं वह कल था
युवा जमाव न था
वह शैशव कोमल था।
जन्म से ही पीरों ने
शायद मुझ में जन्म लिया था।
दुख की खेती से उपज
मैं शुभ्र हुई मनोरम।
किसी ने बच्चे की तरह
खेला जी भर मुझ से।
कभी उड़ाता कभी फाड़ता
इतने पर भी ना भरा मन
बनाया ढेर मेरा उस पर लेट गये।
मैं कोमल मसली जाती रही।
रोकर , हंसती , कहती-
तुम्हे सुख तो मिला खेल का!
मेरा क्या , ‘ मैं वस्तु उपयोग की।’