आदमी

परिंदे घूमते हैं बेख़ौफ , खौफज़दा बस आदमी है।

बड़ी शख्सियत देखकर

न अंदाजा लगाना उसकी ताकत का

सुनहरे लिबासों में भी गमज़दा बस आदमी है।

चमकती सीढ़ियां कामयाबी की

बड़े चक्कर घुमाती हैं,

बुलंदी के आसमानों से भी गिरा बस आदमी है।

न कलमा न तस्बीह झूठे हैं,

बहुत हो गया कोसना रब को

सच तो ये है ,

खुदा की नज़र से गिरा बस आदमी है।

मिटा डाला जहां को

अपने जूनून की खातिर ,

इंसानियत और ईमान की निचली

पायदान पर खड़ा बस आदमी है।


18 thoughts on “आदमी

  1. रचना मैडम, बहुत ही प्रेरणादायक कविता है आपकी……..

    एक रोज़ तय है ‘राख’ में तब्दील होना,
    उम्रभ़र फिर क्यों औरों से ‘जलता’ है आदमी

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